06 August 2023

लो एक बजा दोपहर हुई

लो एक बजा दोपहर हुई
चुभ गयी हृदय के बहुत पास
फिर हाथ घडी की तेज सुई

पिघली सडकें, झरती लपटें
झुँझलायीं लूएँ धूलभरी
अम्बर ताँबा, गंधक धरती
बेचैन प्रतीक्षा भूलभरी
किसने देखा, किसने जाना
क्यों मन उमडा, क्यों आँख चुई

रिक्शेवालों की टोली में
पत्ते कटते पुल के नीचे
ले गयी मुझे भी ऊब वहीं
कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे
मैंने भी एक दाँव खेला
इक्का माँगा, पर खुली दुई

सहसा चिंतन को चीर गयी
आँगन में उगी हुई बेरी
बह गयी लहर के साथ लहर
कोई मेरी, कोई तेरी
फिर घर धुनिए की ताँत हुआ
फिर प्राण हुए असमर्थ रुई
लो एक बजा दोपहर हुई


-भारत भूषण

04 August 2023

मैथिलीशरण गुप्त

राष्ट्कवि मैथिलीशरण गुप्त एक बार दिल्ली से झाँसी जा रहे थे, मेल छूट गई और उन्हें परिवार सहित जनता गाड़ी से रेलयात्रा करनी पड़ी... उन्होंने एक घनाक्षरी लिख डाली इस यात्रा पर... उनके हाथ से लिखी यह ऐतिहासिक कविता देख पढ़ सकते हैं। 
                     -डा० जगदीश व्योम



बंचित हो मेल से कुटुम्बयुत घंटो बैठ, 
 जनता से जाने की प्रतीक्षा करता रहा
भीड़ की न बात कहूँ यात्रियों का तांता बढ़-
 चढ़ निज काल कोठरी सा भरता रहा 
गेंद-बल्ले बन के बिछौने और ट्रंक चले, 
सम्मुख कपाल-क्रिया देख डरता रहा
झाँसी में न जाने किस भाँति जीता उतरा मैं, 
दिल्ली से चला तो मार्ग भर मरता रहा। 
       -मैथिलीशरण गुप्त




अपना भी दर्द निराला है

अपना भी दर्द निराला है-
कुछ घर का है, कुछ बाहर का
हम देश-देश घूमे, 
आँखों में लेकर
भार समंदर का

स्वप्नों में अर्द्धकंदराएँ
जागरण लिए खाली बाती
मन में आकाश रामगिरि का
तन की यात्रा सिंहलद्वीपी
हम बोलेंगे पाषाणों से
है यह अभिशाप जन्म भर का 
अपना भी दर्द निराला है...

मिल बैठे आम तले कर ली
शाकुन्तल क्षण की अगवानी
बाहों के घेरे से बढ़कर
होगी क्या और राजधानी
कस्तूरी मन मानता रहा
बन्धन बस ढाई आखर का
अपना भी दर्द निराला है...

हमने महकाये साँसों से
सूने खंडहर वे राजमहल
अंगारों में उगते गुलाब
पहरे के पीछे खिले कमल
हम धनुष तोड़ते फिरे सदा
लेकर हर भरम स्वयंवर का
अपना भी दर्द निराला है
कुछ घर का है, कुछ बाहर का

  -सोम ठाकुर

03 August 2023

आजाद की माँ का अन्तिम वक्तव्य

 आजाद की माँ का अन्तिम वक्तव्य

(प्रस्तुत कविता एक कवि सम्मेलन के मंच पर सुनाने के उपलक्ष में स्वाधीन भारत की पुलिस ने श्रीकृष्ण सरल जी को गिरफ्तार कर लिया था)


मैं दीपक की बुझने वाली लो-जैसी वृद्धा हूँ,
घृणा घोटती है दम जिसका, मैं ऐसी श्रद्धा हूँ।
दिए विधाता ने जो हैं, मैं वे दिन काट रही है,
जीवित रहकर, मैं अपनी ही किस्मत चाट रही हूँ।

पेट-पीठ हैं एक,भला क्या कोई भूख रही है,
पकी फसल-सी, अरे ! भूख भी दिन-दिन सूख रही है।
दूध मर गया आंचल का, पौरुष के पानी जैसा,
वर्तमान ही मुझे लग रहा, दुखद कहानी जैसा ।

देश-भक्ति के जोश सरोखी, देह लट रही मेरी,
सिंह-सपूतों की गिनती-सी, उमर घट रही मेरी।
छलनी में डाले पानी-सी आस चुक गई मेरी,
दुर्दिन के सम्मान-सरीखी कमर झुक गई मेरी ।

मन की विकृतियों जैसी पड़ गई झुरियाँ तन पर;
बुझी-बुझाई धूनी जैसी राख जमी चिन्तन पर ।
चिर-अतृप्त अभिलाषाओं से, बाल पक गए मेरे,
जीवन-पथ पर चलते-चलते पाँव थक गए मेरे.

देश-द्रोहियों की संख्या-सा, बढ़ दुर्भाग्य रहा है,
कैसे तुम्हें बताऊँ, मैंने क्या-क्या दुःख सहा है ।
मैं माँ हूँ, जिसने अपना बेटा जवान खोया है।
उठ न सकेगा, कई गोलियाँ खाकर बह सोया है।

बेटे के तन में थीं जितनी मातृ-दूध की धारें,
रण-थल में बन गई खून की वे सब प्रखर फुहारें ।
लड़ते-लड़ते खेत रहा था सिंह- सूरमा मेरा,
देख नहीं पाया आजादी का वह स्वर्ण-सवेरा ।

बोले लोग, चिताओं पर मेले हर बरस लगेंगे;
मरे वतन के लिए, फूल उनकी स्मृति पर बरसेंगे।
पर अब मेले कहाँ लग रहे, कोई मुझे बताए,
कौन लद रहा, फूलों से, कोई मुझको समझाए ।

जिन लोगों की लाशों पर चल कर आज दी आई,
उनकी याद बहुत ही गहरी लोगों ने दफनाई।
उनके अपने, आज रोटियों के दर्शन को तरसे
स्वर्ण- मेघ, पर और किसी के आँगन में जा बरसे ।

पता नहीं था, इस धरती पर ऐसे दिन आएंगे,
नोंच - नोंचकर आजादी का मांस गिद्ध खाएंगे।
पता नहीं था, समय बदलते आँख बदल जाएगी,
मानवता की अर्थी, इतने शीध्र निकल जाएगी।

एक ओर नंगी लाशों को कफन नहीं मिल पाए।
और दूसरी ओर दिवाली नित्य मनाई जाए।
क्यों न दलित-पीड़ित की आहों में उफान फिर आए,
क्यों न किसी की घुटन, आग अभिशापों की बरसाए ?

क्यों न किसी की कोख पूत फिर से ऐसा जन्माए,
जो कि गरुड़ बन, महा-भयंकर नागों को खा जाए।
लगता भारत की नारी का फिर मातृत्व जगेगा,
बलिदानी वीरों का मेला फिर से यहाँ लगेगा।

फिर मुझ-जैसी कोई मां, कोई आजाद जनेगी;
किसी चन्द्रशेखर की फिर यौवन-गंगा उफनेगी।
पाप- पुन्ज पर फिर विनाश - ज्वाला वह लहराएगी,
उसकी भूख किसी अन्यायी को फिर से खाएगी।

अन्यायों के मस्तक पर वह फिर गोली दागेगा,
सुन उसकी विस्फोट - गर्जना फिर यह युग जागेगा।
शोषण करने वालों का आसन फिर से डोलेगा,
नया सवेरा इस धरती पर तब आँखें खोलोगा।

-श्रीकृष्ण सरल

24 March 2023

पढ़ बेटी

समय–शत्रु सिर पर चढ़ आया, लड़ बेटी
तेरी ताकत सिर्फ यही है, पढ़ बेटी ! 

कदम–कदम पर बिखरे काँटे ही काँटे
कुछ गैरों ने, कुछ अपनों ने हैं बाँटे
राह इन्हीं में तुझे बनानी है अपनी
पहन कवच शिक्षा का, आगे बढ़ बेटी!
तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! 
समय–शत्रु सिर पर... 

सड़ी–गली रूढ़ियाँ बदल दे जीवन की
मर्यादा में रहकर, कर अपने मन की
संकल्पों की समिधा भरकर मुट्ठी में
तू अपने प्रतिमान नवेले गढ़ बेटी !
तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! 
समय–शत्रु सिर पर... 

सेवा-भाव न अपना कम होने देना
और जु़ल्म को मत हावी होने देना
‘शिक्षा’ तेरा अस्त्र–शस्त्र है, सम्बल है
ले शिक्षा का दीप, सीढ़ियाँ चढ़ बेटी !
तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! 
समय–शत्रु सिर पर... 

तू तो दो परिवारों का उजियारा है
तेरी मुट्ठी में प्रकाश की धारा है
अंधकार के बियाबान हैं मंज़िल में
भूले से भी मत रहना अनपढ़ बेटी !
तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! 
समय–शत्रु सिर पर चढ़ आया, लड़ बेटी
तेरी ताकत सिर्फ यही है, पढ़ बेटी ! 

–डॉ॰ सन्तोष व्यास
  

25 October 2022

पर तुम्हें भूला नहीं हूँ

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ
चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,
जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्रा चूर होती,
गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,
ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का
चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे,
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी न मुझको स्वार्थपरता।
इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं
पथ नया अपना रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की
और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की
विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है
एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है
शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी
तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी
ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा
ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा
इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-
गीत नूतन गा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती
क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर
अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई न अन्तर
मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर
वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर
कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर
इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-
मैं सुनाता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन
अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन
धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन
मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन
एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं
वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं
अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो
तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो
अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-
मैं भिगोता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ
यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ
सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता
भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता
पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है
कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है
'लाभ शुभ' लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने
और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने
बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी
यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी
चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी
हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी
नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-
गढ़ ढहाता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ

-शिवमंगल सिंह सुमन

21 October 2022

दीप पर्व


दीप पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ

दीप के पर्व पर
दीप की वर्तिका
स्नेह से स्निग्ध होकर
जले इस तरह
बह चले ज्योति की
एक भागीरथी
और
उसमें नहाने लगे ज्योत्सना
हर नगर हर डगर
हर तरफ व्योम पर
खेत खलिहान में
घर में आँगन में
हर एक इंसान में
ज्योति के पर्व की
है यही कामना
दीप के पर्व की
कोटि शुभकामना

डॉ0 जगदीश व्योम

दीप पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ

दीप की वर्तिका जगमगाती रहे
ज्योति हर पल अँधेरे भगाती रहे
स्नेह भर भर जालाओ दिये इस तरह
रोशनी व्योम में खिलखिलाती रहे

डॉ० जगदीश व्योम

06 October 2022

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।

खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को
सब अपनी-अपनी हथेली जला के बैठ गए।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।

ये सोच कर कि दरख्तों में छाँव होती है
यहाँ बबूल के साये में आके बैठ गए।

-दुष्यन्त कुमार

मत कहो, आकाश में

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।

-दुष्यन्त कुमार

16 September 2022

ये पहाड़ी औरतें

ये पहाड़ी औरतें

ये पहाड़ी औरतें
भोर के उजास में
लगा कर विश्वास की
माथे पर बिंदिया,
पहन कर नथनी
नाक में अभिमान की,
लपेट कर पल्लू
कमर में जोश का,
चल पड़तीं काम पर
अपनी ही धुन में,
ये पहाड़ी औरतें

पीठ पर ढ़ोकर
जीवन का बोझ
पहाड़ी ढलानों पर
चढ़ते-उतरते
बुनती हैं ख्वाब
कभी साथी की
याद में हुलसतीं
कभी विरही गीत
गुनगुनाती जातीं,
ये पहाड़ी औरतें

रात चाँदनी में नहा
चाँद से बातें करतीं
कभी उल्हाने देतीं
कभी पूछतीं पता
परदेसी पिया का,
ये पहाड़ी औरतें

सखी सहेली-सी
आशाएँ साथ लिये
हँसी-ठिठोली करतीं
रात के सूने पहर में 
देख पाँवों के ज़ख्म
कराह उठती हैं
ये पहाड़ी औरतें।

-रेणु चन्द्रा माथुर 
केलिफोर्निया

15 September 2022

मेरा आसमान हिंदी हो

ज़िंदगी का हर मानी और मान हिंदी हो 
भावों का क्षितिज मेरा आसमान हिंदी हो 

बात हम करें इसमें, बात हर सफल हो वह 
तेरी-मेरी हर अभिलाषा का प्रान हिंदी हो 

सीखते सतत रहने की ललक रहे यूँ ही 
बस फले सदा फूले औ जवान हिंदी हो 

इस चमन के फूलों की रंगतें इसी से हैं 
काश! हर ग़ुँचा चाहे उस की शान हिंदी हो 

हम लिखें सदा बोलें इस्तिमाल में लाएँ 
मात्र भाषणों में ही ना बखान हिंदी हो 

मुक्त यह बहे, उन्नति पथ चले, दुआ मेरी 
हौसलों की सब बातें औ उड़ान हिंदी हो 

आज है दिवस-हिंदी, ख़ूब हो मुबारक वह
आज से करें कुछ यूँ हम, महान हिंदी हो॥

-प्रगति टिपणीस
[मास्को, रूस] 

08 August 2022

अगर कहीं मैं घोड़ा होता

अगर कहीं मैं घोड़ा होता
वह भी लंबा चौड़ा होता
तुम्हें पीठ पर बैठा कर के
बहुत तेज मैं दौड़ा होता

पलक झपकते ही ले जाता
दूर पहाड़ी की वादी में
बातें करता हुआ हवा से
बियाबान में आबादी में

किसी झोपड़े के आगे रुक
तुम्हें छाछ और दूध पिलाता
तरह-तरह के भोले-भोले
इंसानों से तुम्हें मिलाता

उनके संग जंगलों में जाकर
मीठे-मीठे फल खाते
रंग-बिरंगी चिड़ियों से
अपनी अच्छी पहचान बनाते

झाड़ी में दुबके तुमको प्यारे
प्यारे खरगोश दिखाता
और उछलते हुए मेमनों के संग
तुमको खेल खिालाता

रात ढमाढम ढोल झ्माझ्म
झांझ नाच गाने में कटती
हरे भरे जंगल में तुम्हें
दिखाता कैसे मस्ती कटती

सुबह नदी में नहा दिखाता
तुमको कैसे सूरज उगता
कैसे तीतर दौड़ लगाता
कैसे पिंडुक दाना चुगता

बगुले कैसे ध्यान लगाते
मछली शांत डोलती कैसे
और टिटहरी आसमान में
चक्कर काट बोलती कैसे

कैसे आते हिरन झुंड के झुंड
नदी में पानी पीते
कैसे छोड़ निशान पैर के
जाते हैं जंगल में चीते

हम भी वहां निशान छोड़कर
अपन फिर वापस आ जाते
शायद कभी खोजते उसको
और बहुत से बच्चे आते

तब मैं अपने पैर पटक
हिन हिन करता तुम भी खुश होते
कितनी नकली दुनिया यह अपनी
तुम सोते में भी यह कहते

लेकिन अपने मुंह में नहीं
लगाम डालने देता तुमको
प्यार उमड़ने पर वैसे छू
लेने देता अपनी दुम को

नहीं दुलत्ती तुम्हें झाड़ता
क्योंकि उसे खा कर तुम रोते
लेकिन सच तो यह बच्चो
तब तुम ही मेरी दुम होते।

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

20 July 2022

जागो फिर एक बार


प्यार जगाते हुए 
हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!

आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा 
सोयी कमल-कोरकों में?-
बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!

अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
आशाओं भरी मौन 
भाषा बहु भावमयी
घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए,
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!

पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, 
रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!

सहृदय समीर जैसे
पोंछो प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमल
ऋतु-कुटिल 
प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें,
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे,
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार! 
 
उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट,
गया दिन, आयी रात
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के 
बीते दिन, मास,
वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!

-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

13 July 2022

बदनाम व्यर्थ हो जाएंगे

पुरवा बयार जैसे कटार 
सुरबाला सा सोहे सिंगार,
मुस्काओ न मुझको निहार
बदनाम व्यर्थ हो जाएंगे, 
दोनों ही कहीं खो जाएंगे।

मेरा जीवन तृष्णा का घर
तुम हो तृप्ति लोक की रानी।
बिजली जैसे अंग दमकते,
रूपसि तुम हो एक कहानी ॥
मैं अन्धकार, मैं अंधकार, 
करना न मुझे तुम तनिक प्यार,
कहता हूँ तुमसे बार-बार, 
उपनाम व्यर्थ हो जाएंगे।

मैं नदिया का बहता पानी,
लक्ष्मण रेखा तेरा गहना।
नीरवता वासना न रच दे.
आग फूस में दूरी रखना ॥
मेरी आशाएं हैं अपार, 
तू मादकता का मंदिर ज्वार,
संयम ने मानी अगर हार, 
कोहराम व्यर्थ हो जाएंगे।

मन आराधक बना तुम्हारा,
हूर कोई हो या हो देवी।
ताजमहल की वंशज लगतीं,
बोल तुम्हारे अन्तर वेधी ॥
अब लो पुकार, दो सौंप भार, 
हैं 'पवन' सदन के खुले द्वार,
यदि उतर गया यौवन ख़ुमार, 
नीलाम व्यर्थ हो जाएंगे।

-पवन बाथम 

धूप का भेंटशुदा चश्मा

हाथ से छूट सड़क पर गिरा
धूप का भेंटशुदा चश्मा
हमारे सम्बंधों की तरह
किरिच सब
बिन जीवन हो गये
सोन दिन आये क्या
लो गये

समय का खलनायक जीता
त्रासदी की फ़िल्में हो गईं
मुट्ठियों को ख़ालीपन थाम
पकेपन में स्याही बो गईं 
न लौटे शकुनों के अनुमान
खोजने हरियाली जो गये
सोन दिन आये क्या
लो गये 

काँच के परदे के इस पार
साँस की घुटन सजीवन हुई
दृष्टि में आलेखों को बाँध
अस्मिता काँपी छुईमुई 
भरे मौसम तक पहुँचे हाथ
अचानक पिघल हवा हो गये
सोन दिन आये क्या
लो गये

-सुभाष वसिष्ठ 

07 July 2022

जब से यह देखे हैं बतियाने नैन

जब से यह देखे हैं बतियाने नैन
फूलों की बरसा से बरसाते बैन
डोल गया.. डोल गया ... डोल गया मन
जीवन में आया नयापन

प्यार भरे मौसम की भाषा है मौन
अन्तर पट जान गया है कितना  कौन
एक दूसरे को आओ नैन मूँद देखे
जंजाली दुनिया को एक ओर फेकें
प्राण हमें एक मिला गूँगे दो तन।
जीवन में आया नयापन

सांसों में घुलने लगी चम्पा की गंध
सदियों के टूट गए सारे अनुबंध
कल्पना के पंखों से आसमान छूलें
और कभी भावों के झूले पे झूले
होने पाए कभी प्रीति अपावन।
जीवन में आया नयापन

अलकों संग खेल रही चन्दनी बयार
झुकी-झुकी पलको में मुस्काए प्यार
फूल से कपोल  हुए शर्म से गुलाबी
मदमाते नैन लगें जन्म के शराबी
कर रहा है तुमपे पवन तन मन अर्पन
जीवन में आया नयापन 
-पवन बाथम

20 September 2021

मैं कविता हूँ

मैं कला-कंज की लली-कली, 
मैं कल कूजन हूँ कविता हूँ।
मैं सोए शिशु का सुभग हास,
में शक्ति-स्रोत हूँ सविता हूँ।।

मैं हृदय-सरोवर से निकली
चंचल-गति किंचित चकित-चित्त
भावों के उन्नत-नत भू पर
चढ़ मचल-मचल फिर उतर लहर
लहरों के नूपुर के रव से
यतिमय गतिमय संगीत सुना
शब्दों के झलमल घूँघट से
अर्थों का हिमकर-मुख झलका
फिर सस्मित-सस्मित शरमाती
नयनों से नव रस छलकाती,
प्रिय सरस सिन्धु-उर में विलीन
हो जाने वाली सरिता हूँ।
मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।

मैं रण में मस्त जवानों के
निज देश भक्त दीवानों के
कर में धृत कठिन कृपाणों को
बरछी भालों को, वाणों को
झन-झन करती तलवारों को
दुश्मन की छाती फाड़ रक्त
पाई तेगा की धारों को
अति तृप्त दीप्त करने वाली
जागृत ज्वाला भरने वाली
मृत्युंजय वीर प्रसूता हूँ।
में कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।

मैं ज्ञान-भक्ति की जननी हूँ
वैराग्य सिखाने वाली हूँ।
शिव, सत्य और सुन्दरता से
सिंचित भू की हरियाली हूँ।
में प्रेम दीवानी मीरा के
दृग की अनुरंजित लाली हूँ।
मैं अनहद नाद कबीरा का
कीर्तन की बजती ताली हूँ।
मैं धर्मप्राण धरती के कण-
कण में भगवान जगाती हूँ।
मैं ऊँच-नीच का भेद मिटा
कर, गीत प्रेम के गाती हूँ।
में मरणोन्मुख मानवता को
अमरत्व दान देने वाली
मैं सघन तिमिर को भेद
जगत में प्रभापुंज भरने वाली, 
मैं त्रिगुण-शक्ति संयुक्त, 
भक्ति-रस-अमृत से सम्पृक्ता हूँ।।
मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।

मै चन्द्रमुखी मृगनयनी के
क्वारे गालों की अरुणाई।
मैं अंगराग में रची बसी
मधु मदिर गंध वाली काया-
की कसमस करती तरुणाई।
मैं निर्जन कुंज-कछारों में, 
मद भरे उष्ठ अभिसारों में,
रीझों-खीझों, मनुहारों में, 
यौवन की मस्त बहारों में,
जन-संकुल गृह में लज्जावश
गुपचुप नयनों की बातों में,
प्रेषित पतिकाओं के द्वारा
कठिनाई से कटने वाली
घन घुमड़-घुमड गर्जित असाढ़ 
की तप्त फुहारी रातों में,
बसने वाली श्रृंगार प्रिया
मैं रीति बद्ध, मैं रीति मुक्त
बहु अलंकार संयुक्ता हूँ।
मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।

मैं राष्ट्र-भक्ति से ओत-प्रोत
स्वर्णिम अतीत के पृष्ठों पर
अंकित पठनीय कहानी हूँ।
में सघन वेदना में जन्मी
कोमल करुणा कल्याणी हूँ।
मैं जिज्ञासा-कुण्ठा से युत
अंतर्मन की आकुलता हूँ।
अनजाने प्रियतम से मिलने
की आश भरी आतुरता हूँ।
मैं प्रगति मुखी अँगड़ाई में,
संपूर्ण क्रांति के मंत्रों में
काँटों पर टँगी रोशनी के
रंगीन घोषणा-पत्रों में
अनुरक्त व्यक्त होने वाली
कल-कांत कामिनी कविता हूँ।
मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।

-ईश्वरी यादव
(आजकल/जून, 1992)

29 May 2021

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17 May 2021

व्यथा एक जेबकतरे की


कोरोना से प्यारे अपना क्या हाल हो गया
जेबें ढीली पड़ गईं
 और
पेट से पीठ का मिलन हो गया।
पॉकेटमार नाम है अपना
और
राम नाम जपना पराया माल हो अपना।
अच्छा धंधा था 
यह अपना
लोगों की भारी भारी जेबों को
'हाथ की सफाई' से हल्की करना
फिर चैन से खाना-पीना और सोना।
अब कोरोनाकाल में
वही हाथ धो धो क 
ये 'कलाकार' निढाल हो गया।
कोरोना से प्यारे अपना....

जब नगर में दिन प्रतिदिन
लगते थे कई कई ठेले मेले
खुशी-खुशी उनमें हमने
कई कई बार हैं धक्के झेले
लोगों की जेबों पर  अपनी
उंगलियों की कृपा बरसाई
इन हाथों, न जाने कितने
बटुओं और नोटों की 
जान है बचाई।
एक अरसा हो चुका है यहांँ
हरियाली देखे हुए
हरा-भरा मैदान अब रेगिस्तान हो गया
कोरोना से प्यारे.....

हाथों की कसरत नहीं हुई है
कलाइयांँ  व उंगलियाँ अकड़ गईं हैं
लोगों की रेलमपेल देखने को
अखियाँ तरस गई हैं
फाका द्वार पीट रहा है
धंधा खटिया पकड़े हुए हैं
अच्छा खासा सुखी जीवन
बदहाल हो गया ।
कोरोना से प्यारे......

सूने हैं मस्जिद, मन्दिर
और गिरजाघर, गुरुद्वारे
भटक रहे हैं ब्लेड सहित
गली-मोहल्ले द्वारे द्वारे
खाली हाथ लौट-लौटकर
हम मरीज और कमरा अपना
आज अस्पताल हो गया।
कोरोना से प्यारे....

किसको सुनाएँ दुखड़ा अपना
किसे पढाएंँ यह अफसाना
हम मेहनतकश बंदों की
इतनी अच्छी कला का
बंटाढार हो गया।
कोरोना से प्यारे अपना
क्या हाल हो गया।

-डा० रामकुमार माथुर
अजमेर, राजस्थान.

10 May 2021

मुक्तक

कर्म का दीप जला जाता है। 
दर्द का शैल गला जाता है। 
वक्त को कौन रोक पाया है, 
वक्त आता है, चला जाता है।। 

-डॉ अशोक अज्ञानी 

29 November 2020

औरतें


कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है
मैं कवि हूँ, कर्ता हूं, क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूंगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूगा,
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होगी
मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर
और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से जिंदा करूंगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूंगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?
क्योंकि में उस औरत के बारे में जानता हूं
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बिते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झांका तक नहीं
और जब बाहर निकली वह तो कहीं उसकी लाश निकली
औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक
औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरते रोती है. मरद और मारते हैं
औरतें खूब जोर से रोती है।
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे
सबसे पहले जलाया गया?
में नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी मां रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूंगा।

-रमाशंकर यादव विद्रोही
(3 दिस.1957- 8 दिस.2015) 

23 July 2020

Alha

हिआँ कि बातइँ हिअनइँ छोड़उ, अब आगे को सुनउ हबाल।
खोलि पत्तिरा देखन लागे, अउ ज्युतिस को करइँ विचार।
साइति अबहीं अति नीकी हइ, अइपनबारी देउ पठाइ।
हाँत जोरि के रुपना बोलो, दादा सुनउँ हमारी बात।
मेरे भरोसे मइँ ना रहिअउ, मइँ ना मूँड़ कटइहउँ जाइ।
जालिम राजा नइनागढ़ को, जाकी मारु सही ना जाइ।
तड़पे ऊदन तब रुपना पइ, रुपना सुनिलेउ बात हमारा।
नउकर-चाकर तुमइँ न जानों, तुम तउ भइआ लगउ हमारा।
आल्हा ब्याहन कउ ना रहिअइँ, बातइँ कहिबे कउ रहि जाइँ।
रुपना बोलइ तब मलिखे सइ, दादा सुनउ हमारी बात।
घोड़ा करिलिया आल्हा बारो, सो मोइ आप देउ मँगवाइ।
अइपनबारी तउ लइ जइहउ,ँ जो दइ देउ ढाल तलवार।
सब हथियार दए मलिखे नइँ, अउ दइ दई ढाल तलवार।
रुपना करिलिया पइ चढ़ि बइठो, नइनागढ़ मइँ पहुँचो जाइ।
तब दरमानी बोलन लागो, ओ परदेसी बात बताउ।
कहाँ सइ आए हउ, कहाँ जइहउ, अपनो कहउ देस को नाउँ।
देसु हमारो नगर महाबो, जहँ पइ बसइ रजा परमाल।
आल्हा ब्याहन कउ आए हइँ, रुपना बारी नामु हमार।
अइपन बारी हम लाए हइँ, राजइ खबरि सुनाबउ जाइ।
साइति बीतति हइ दुआरे की, हमरो नेगु देउ मँगबाइ।
कहा नेगु द्वारे को चहिए, राजइ खबरि सुनाबइँ जाइ।
रुपना बोलो दरमानी सइ, अइसी कहउ जाइ महराज।
चारि घरी भरि चलइ सिरोही, द्वारे बहइ रकत की धार।
इतनी सुनिके दरमानी नइँ, राजइ खबरि सुनाई जाइ।
अइपनबारी बारी लाओ, अउ द्वारे पइ पहुँचो आइ।
आल्हा ब्याहन कउ आए हइँ, झण्डा धुरे दओ गड़वाइ।
झिगरइ नेगी दरबाजे पइ, द्वारे कठिन चलइ तलवारि।
अइसो नेगी मइँ ना देखो, मोपइ कूछ कही ना जाइ।

12 May 2020

घरबंदी में

=गीत =
घरबंदी में

अहा! कुदरती छटा!
तुम्हारा अभिनन्दन है।

पहले गरलपान करना मज़बूरी थी
हवा प्रदूषित थी, कितनी ज़हरीली थी
शीतल-मंद-सुगंध पवन अब है अमृत
पहले आँखें जलन भरी थीं, गीली थीं
मलय समीर सुवासित है
चंदन-चंदन है।

पहले कहाँ दिखाई देती गौरैया
अब तो चीं-चीं चहक देख इठलाता हूँ
सुबह-शाम दाना-पानी हूँ रख देता
देख फुदकती, गौरैया हो जाता हूँ
पाखी बन उड़ान भरता
यह पाखी मन है।

देख भौंकते कुत्ते को गुस्सा हो आता
खलल नींद में पड़ती थी तो था झल्लाता
रोज उसे रोटी देना जब शुरू किया
लावारिस होकर भी पूँछ हिला जाता
पौधों को दुलराने से
ही मन प्रसन्न है।

घरबंदी में बंद हुआ जब से घर में
दिल का दरवाजा खुलता ही चला गया
नज़रबंद होने पर मन की आँख खुली
अब तक तो अपनों के हाथों छला गया
कुदरत के संग जीना
ही सच्चा जीवन है।
अहा! कुदरती छटा!
तुम्हारा अभिनन्दन है।

-भगवती प्रसाद द्विवेदी 

21 April 2020

जंग लड़ेंगे हम

जंग लड़ेंगे हम

जंग वायरस ने छेड़ी है
जंग लड़ेंगे हम
और जंग में
विजयी होकर ही
निकलेंगे हम ।

घर में रहकर
वाच करेंगे
इसकी चालों को
आश्रय देंगे
भूखे, प्यासे,
बिन घरवालों को
कर इसको कमजोर
प्राण इसके
हर लेंगे हम ।

अजब तरह का
ये दुश्मन है
कुशल खिलाड़ी है
छोटा है पर
छिपी पेट में
इसके दाढ़ी है
छिपकर
वार कर रहा है,
लेकिन सँभलेंगे हम ।

घुट्टी पीकर
चला चीन से
दुनिया में छाया
पूरा विश्व
अभी तक इसको
पकड़ नहीं पाया
बड़े जतन से
जाल बिछा
इसको जकड़ेंगे हम ।

मचा हुआ कुहराम
हर जगह
बाहर औ भीतर
कोस रही है
दुनिया इसको
पानी पी-पीकर
डरना नहीं
व्योम इससे
जल्दी उभरेंगे हम ।
जंग वायरस ने छेड़ी है ......

-डा० जगदीश व्योम

24 March 2019

फागुन सब क्लेश हरत गुइयां

फागुन सब क्लेश हरत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयां

चुन्हरि पै सात हू रंग सजें
कहूं ढोल मंजीरे मृदंग बजें
रसिया बर जोरी करत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयां

सन सननन पवन हरत बाधा
झूम झननन नाचति है राधा
दुःख, दारिद्रय दैन्य जरत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयाँ

कोई दौरि बचे नहिं नौरि बचे
चौपारि बचै नहिं पौरि बचे
रंग सों सरबोर करत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयाँ

अभिमान द्वेष और दम्भ कढ़ैं
हिय सो ई मिलिके नेह बढ़ै
सब गरब गुमान गरत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयाँ

मर्यादा कौने में डारो
भीतर बाहर सब रंगि डारो
सब ऐसी ढरनि ढरत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयां

गोपी को मन कान्हा भांपे
धरती नाचै अम्बर काँपै
मन ऐसी कुलांच भरत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयां

नहीं जोरु चलै कछू छैलन पै
मलि देत अबीर कपोलन पै
गोरी अर र र  अरर करत गुइयां
रस झर-झर झरर झरत गुइयां
     
-डॉ० रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’

21 March 2019

शिशिर ने पहन लिया

शिशिर ने पहन लिया बसन्त का दुकूल
गन्ध बह उड़ रहा पराग धूल झूले
काँटे का किरीट धारे बने देवदूत
पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल
अरे ॠतुराज आ गया

-अज्ञेय

27 February 2019

लेखनी चलाने वाले भावुक हृदय हम

लेखनी चलाने वाले भावुक हृदय हम
  वक्त आने पर कर वज्र थाम लेते हैं
शक्ति का जवाब शान्ति से नहीं सुनाई देता
  हम ऐसे वक्त शक्ति से ही काम लेते हैं
बात अपनी पे व्योम रहते सदा अटल
  बढ़ते कदम नहीं विसराम लेते हैं
जनता की एक-एक साँस के अकूत बल
  सम्बल से काल का भी हाथ थाम लेते हैं


 -डा० जगदीश व्योम

22 January 2019

पीपल का पात हिला

पीपल का पात हिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है

शाहों ने मरण रचा
बस्तियाँ मसान हुईं
सुबह-शाम-दुपहर औ' रातें
बेजान हुईं
कहीं कोई फूल खिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है

शहज़ादों का खेला
गाँव-गली रख हुए
सारे ही आसमान
अंधियारा पाख हुए
एक दीया जला मिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है

नाव नदी में डूबी
रेती पर नाग दिखे
संतों की बानी का
कौन भला हाल लिखे
रँभा रही कपिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है

-कुमार रवीन्द्र

15 November 2018

अंटा मेरे बाप का

अगर जीतना है दुनिया तो यही तरीका टाप का
चट भी मेरी पट भी मेरी अंटा मेरे बाप का

ये भी अच्छे वो भी अच्छे किससे भला बुराई लें
एक नाव पर हैं सवार अब किससे क्या उतराई लें
मैंने अपनी बात रखी अब क्या विचार है आपका

सबके झंडे सबके पट्टे सबके बिल्ले बाँधें हम
सबको काँधों पर बैठायें बैठें सबके काँधे हम
हमने भी तो सिला लिया है कुरता लम्बे नाप का

सबकी अपनी अपनी गोटी सबके अपने खेल यहाँ
अपने अपने रूट दौड़तीं सबकी अपनी रेल यहाँ
छुक छुक दौड़ पड़ेगा फिर भी अपना इंजन भाप का

जहाँ खड़े हो वहीं ज़ोर से उनकी ही जयकार करो
ओठों से मुस्कान न छूटे हाथ जोड़ सत्कार करो
और असर तो देखो प्यारे झूठे प्रेमालाप का

जीते हारे कोई मगर लड्डू तो अपने हाथ रखे
उसकी ही लुटिया डूबेगी जो भी हमको साथ रखे
होकर अलग तमाशा देखें ख़ुशियों और विलाप का
चट भी मेरी पट भी मेरी अंटा मेरे बाप का

-राजेन्द्र सहारिया

19 October 2018

राम की शक्ति पूजा

 आज विजय दशमी है, विजय का पर्व, विजय का सीधा सम्बंध शक्ति से है, जिसके पास शक्ति होती है वही विजय को प्राप्त करता है, वही वजयी होता है, परवर्ती पीढ़ियाँ उसी का गुणगान करती हैं, उसी का अनुगमन करती हैं। अनेक बार यह प्रश्न भी उठता रहता है कि कौन सी शक्ति अच्छी है और कौन सी बुरी शक्ति है, शक्ति तो केवल शक्ति होती है न अच्छी होती है न बुरी होती है, यह निर्भर करता है शक्ति के सम्वाहक पर कि उसकी प्रवृत्ति किस तरह की है। शक्ति का सम्वाहक शक्ति का प्रयोग किस रूप में करता है, उसी के अनुरूप शक्ति कार्य करती है। रावण और राम के रूप में शक्ति के दो सम्वाहकों द्वारा शक्ति के प्रयोग की समूची गाथा है। शक्ति के दरुपयोग पर शक्ति के सदुपयोग की विजय गाथा।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की अमर कविता "राम की शक्ति पूजा" आज के दिन पर सबसे प्रासांगिक कविता है। राम जिन परिस्थितियों में अपने को घिरा हुआ देखते हैं परन्तु हिम्मत नहीं हारते हैं उसी प्रकार निराला के जीवन में भी विरोधी शक्तियाँ बहुत सक्रिय थीं, फिर भी निराला हिम्मत नहीं हारते..... और.... न दैन्यं न च पलायनम्.... के मूलमंत्र को अपनाते हुए जीवनयुद्ध लड़ते रहते हैं.....
आज प्रस्तुत है निराला जी की वही कालजयी कविता " राम की शक्ति पूजा"  -

-डा० जगदीश व्योम


== राम की शक्ति पूजा ==
        -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
     
रवि हुआ अस्त
ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान
राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर
उद्धत लंकापति मर्दित कपि दल बल विस्तर
अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शर-भंग भाव
विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्राव
रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दल बल
मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्ल रोध
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध
उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर
जानकी भीरु उर आशा भर, रावण सम्वर
लौटे युग दल राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल
बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न

प्रशमित हैं वातावरण, नमित मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीतचरण
श्लध धनुगुण है, कटिबन्ध त्रस्त तूणीरधरण
दृढ़ जटा मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वृक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार

आये सब शिविर सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल
बैठे रघुकुलमणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर पदक्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या विधान
वन्दना ईश की करने को लौटे सत्वर
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण भल्ल्धीर
सुग्रीव, प्रान्त पर पदपद्य के महावीर
यथुपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम को जितसरोजमुख श्याम देश

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल
स्थिर राघवेन्द को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह रह उठता जग जीवन में रावण जय भय
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपुदम्य श्रान्त
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार बार
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का नयनों से गोपन प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन
काँपते हुए किसलय, झरते पराग समुदय
गाते खग नवजीवन परिचय, तरू मलय वलय
ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय

सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त
फूटी स्मिति सीता ध्यानलीन राम के अधर
फिर विश्व विजय भावना हृदय में आयी भर
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर
ताड़का, सुबाहु बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर

फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन
खिच गये दृगों में सीता के राममय नयन
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल

बैठे मारुति देखते रामचरणारविन्द
युग 'अस्ति नास्ति' के एक रूप, गुणगण अनिन्द्य
साधना मध्य भी साम्य वामा कर दक्षिणपद
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर, गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम नाम
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल
देखा कवि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल लोचन, पर सजल नयन
व्याकुल, व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख निश्चेतन
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार
उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल
शत घूर्णावर्त, तरंग भंग, उठते पहाड़
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष
शत वायु वेगबल, डूबा अतल में देश भाव
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद क्षुब्ध कर अट्टहास
रावण महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार
यह रूद्र राम पूजन प्रताप तेजः प्रसार
इस ओर शक्ति शिव की दशस्कन्धपूजित
उस ओर रूद्रवन्दन जो रघुनन्दन कूजित
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण भर चंचल
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्दस्वर
बोले "सम्वरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, नहीं हुआ श्रृंगार युग्मगत, महावीर
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय शरीर
चिर ब्रह्मचर्यरत ये एकादश रूद्र, धन्य
मर्यादा पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य
लीलासहचर, दिव्य्भावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"

कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने ?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर
रघुवीर, तीर सब वही तूण में है रक्षित
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय
रावण? रावण लम्प्ट, खल कल्म्ष गताचार
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर
कहता रण की जयकथा पारिषददल से घिर
सुनता वसन्त में उपवन में कलकूजित्पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक धिक?

सब सभा रही निस्तब्ध राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समानुरक्ति
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर
बोले रघुमणि "मित्रवर, विजय होगी न, समर
यह नहीं रहा नर वानर का राक्षस से रण
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति" कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम
निज सहज रूप में संयत हो जानकीप्राण
बोले "आया न समझ में यह दैवी विधान
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर
करता मैं योजित बार बार शरनिकर निशित
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार
हैं जिनमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार

शत शुद्धिबोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित
वे शर हो गये आज रण में श्रीहत, खण्डित
देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार बार
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों त्यों
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त"

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान, "रघुवर
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक
मध्य माग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया ऋक्ष को मान राम ने झुका माथ
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार
देखते सकल, तन पुलकित होता बार बार
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन चरणकमल तल, धन्य सिंह गर्जित
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यानलग्न
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शिभित शत हरित गुल्म तृण से श्यामल सुन्दर
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि शेखर
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निबिड़ जटा दृढ़ मुकुटबन्ध
सुन पड़ता सिंहनाद रण कोलाहल अपार
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समाराधन

क्रम क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस
कर जप पूरा कर एक चढ़ाते इन्दीवर
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित मन
प्रतिजप से खिंच खिंच होने लगा महाकर्षण
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवीपद पर
जप के स्वर लगा काँपने थर थर थर अम्बर
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम
आठवाँ दिवस मन ध्यान्युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा हरि शंकर का स्तर
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल
देखा, वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका
वह एक और मन रहा राम का जो न थका
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन
"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन
"कहती थीं माता मुझको सदा राजीवनयन
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक लक करता वह महाफलक
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय

"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर

"होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला


16 October 2018

तुमको तो मेरी याद न आएगी

तुमको तो मेरी याद न आएगी
आएगी भी तो नहीं रुलाएगी
पर कभी रुला ही दे तो यह करना
सामने किसी दर्पण के बैठ जरा
पहले मुसकाना, फिर शरमा जाना

वैसे तो प्रिय तुम इतनी सुन्दर हो
रोओगी भी तो फूल खिलाओगी
चन्दा को अलकों में भरमाओगी
बादल को पलकों में तरसाओगी

तरसाना- भरमाना पर ठीक नहीं
बिजलियाँ कौँध उठती हैं कभी कहीं
माने ही किन्तु न मन तो यह करना
उगते चन्दा से आँखें उलझाकर
पहले मुसकाना फिर शरमा जाना

चन्दा से आँख मिलाना बुरा नहीं
हर तारे से पर प्यार न अच्छा है
जूड़े की शोभा एक फूल से है
उपवन भर से अभिसार न अच्छा है

इसलिए कि जो सबसे टकराता है
वह नहीं किसी का भी हो पाता है
पर फिर भी मन न करे तो यह करना
जा किसी दुखी पतझर के दरवाजे
दो आँसू दे आना, दो ले आना

सुन्दरी, रूप चाहे जिसका भी हो
यौवन के दर पर एक भिखारी है
तुम चाहे जितना गर्व करो उस पर
रुकनेवाली उसकी न सवारी है

जो अपना नहीं, गर्व उस पर कैसा
जीवन तो है कागज के घर जैसा
पर फिर भी मान करो तो यह करना
कोई मुरझाया फूल मसल करके
पहले कुछ सुख पाना, फिर पछताना

तुम चहल-पहल ब्याहुली अटारी की
मैं सूनापन विधवा के आँगन का
है प्यार मिला तुमको मधुमासों का
मुझ पर साया है रोते सावन का

मिलना तो अब अपना नामुमकिन है
कारण, ढलने को जीवन का दिन है
पर फिर भी मिल जाएँ तो यह करना
अपने सपनों के मरघट में बैठा
मैं सिसकूँ तो तुम कफन उढा जाना

-गोपाल दास नीरज

02 October 2018

आज सुबह

आज सुबह
सूरज ने पूछा
क्यों रखते हो बंद खिड़कियाँ

कमरे में कुछ देर
धूप को भी झरने दो
अन्दर की चीजों को भी
साँसें भरने दो
बड़े अज़ब हो
दिन में भी
कमरे में रखते जली बत्तियाँ

मुर्दा हुई मेज
जिस पर तुम बैठे रहते
देखो बाहर
सुनो कि पत्ते क्या-क्या कहते
क्यों नाहक ही
बना रहे तुम
अंधे युग की नई बस्तियाँ

होती रहतीं
रोज़ नई घटनाएँ बाहर
तितली-तोते-मोर मनाते
उत्सव जी-भर
छिपा रहे तुम
हम सबसे क्या
जो करते हो रोज़ गलतियाँ

-कुमार रवीन्द्र

22 July 2018

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा
एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं
तुमने पत्थर का दिल हमको कह तो दिया
पत्थरों पर लिखोगे, मिटेगा नहीं

मैं तो पतझर था फिर क्यों निमंत्रण दिया
ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुए
आस मन में लिए, प्यास तन में लिए
कब शरद आई पल्लू समेटे हुए
तुमने फेरी निगाहें, अँधेरा हुआ
ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं
रेत पर ........

मैं तो होली मना लूँगा सच मान लो
तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो
मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा
तुम मुझे मेरे पंखों का आकाश दो
उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम
यूँ करोगी तो दिल चुप रहेगा नहीं
रेत पर ........

आँख खोलीं, तो तुम रुक्मणी-सी दिखीं
बंद की आँख तो राधिका तुम लगीं
जब भी देखा तुम्हें शान्त-एकान्त में
मीरबाई-सी एक साधिका तुम लगीं
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो
मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं
रेत पर ........
                 

-विष्णु सक्सेना

18 July 2018

क्यों मिले तुम

जो लिखा प्रारब्ध में
‘गर वो मिलेगा,
क्यों मिले तुम?

चल रहा जीवन निरंतर
निभ रहे दायित्व सारे
आँख की कोई उदासी
छुप रही होठों किनारे
ख़ुशबुओं की कब कमी थी
ज़िंदगी में
क्यों खिले तुम ।

एक पूरा आसमां जब
हो चुका तय बहुत पहले,
क्या छुपा था सार आख़िर
क्यों कथा के पात्र बदले,
मंज़िलें जब थीं नहीं फिर
साथ मेरे
क्यों चले तुम?

कुछ पलों का साथ था पर
युग–युगांतर की कथा थी,
बूंद–बूंदों कलश छलका
कई स्मृतियों की व्यथा थी,
स्वप्न यदि हैं सिर्फ़ मिथ्या
रात–दिन फिर
क्यों पले तुम

-मानोशी

19 June 2018

भाती रही चाँदनी

जब से सँभाला होश मेरी काव्य चेतना ने
            मेरी कल्पना में आती-जाती रही चाँदनी 
आधी-आधी रात मेरी आँख से चुरा के नींद
            खेत खलिहान में बुलाती रही चाँदनी 
सुख में तो सभी मीत होते किन्तु दुख में भी
            मेरे साथ साथ गीत गाती रही चाँदनी 
जाने किस बात पे मैं चाँदनी को भाता रहा
            और बिना बात मुझे भाती रही चाँदनी 


-उदयप्रताप सिंह

17 June 2018

रिटायर पापा

कितने ज्यादा बदल गए हैं,
जब से हुए रिटायर पापा
भीतर-भीतर बिखर गए हैं,
सधे हुए हैं बाहर पापा

कड़कदार आवाज रही जो,
धीमी सी हो गयी अचानक
समझौतों की लाचारी अब,
जीवन का लिख रही कथानक
घर के न्यायाधीश कभी थे,
न्याय माँगते कातर पापा

बेटे-बहुएँ आँख परखते थे
लेकिन अब आँख दिखाते
चले पकड़ कर जो उँगली को,
वह उँगली पर आज नचाते
बच्चों की रफ्तार तेज है,
घिसे हुए से टायर पापा

माँ अब पहले से भी ज्यादा,
 देखरेख पापा की करती
नहीं किसी से कभी डरी माँ,
लेकिन अब बच्चों से डरती
घर में रहकर भी लगते है,
 जैसे हों यायावर पापा

पापा को आनन्दित करतीं,
नाती-पोतों की मुस्काने
मन मयूर भी लगे थिरकने,
 मिल जाते जब मित्र पुराने
कहाँ गया परिवार, प्रेम, वह,
 जिस पर रहे निछावर पापा

कितने ज्यादा बदल गए हैं,
जब से हुए रिटायर पापा
भीतर-भीतर बिखर गए है,
सधे हुए हैं बाहर पापा

-डॉ श्याम मनोहर सिरोठिया 

बाबू जी

घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी

तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी

भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी

कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी

-आलोक श्रीवास्तव

19 May 2018

हर मौसम में छोटेलाल



एक चटाई पर सोता है, हर मौसम में छोटेलाल 
पागल है, सपने बोता है, हर मौसम में छोटेलाल

कैसा है किरदार देह का, कोई नहीं समझ पाया
जो कुछ होना है होता है, हर मौसम में छोटेलाल

दीवारों के कान नहीं होते हैं वरना सुन लेते
क्यों हँसता है क्यों रोता है, हर मौसम में छोटेलाल

जो वारिस हैं वो सेवा के संकल्पों को भूल गये
लावारिस लाशें ढोता है, हर मौसम में छोटेलाल

सरकारी दस्तावेजों में तो आजाद लिखा है वो
लेकिन पिंजरे का तोता है, हर मौसम में छोटेलाल

श्वासों के पनघट पर प्रतिदिन आशाओं के साबुन से
दाग जिन्दगी के धोता है, हर मौसम में छोटेलाल

रमता जोगी बहता पानी, यही कहानी 'अज्ञानी '
कुछ पाता है कुछ खोता है, हर मौसम में छोटेलाल

-डा० अशोक अज्ञानी

07 May 2018

ढूँढ़ते फिरोगे लाखों में

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे
ढूँढ़ते फिरोगे लाखों में

फिर कौन सामने बैठेगा
बंगाली भावुकता पहने
दूरों-दूरों से लाएगा
केशों को गंधों के गहने
यह देह अजंता शैली-सी
किसके गीतों में सँवरेगी
किसकी रातें महकाएँगीं
जीने के मोड़ों की छुअनें
फिर चाँद उछालेगा पानी
किसकी समुंदरी आँखों में

दो दिन में ही बोझिल होगा
मन का लोहा, तन का सोना
फैली बाँहों-सा दीखेगा
सूनेपन में कोना-कोना
अपनी रुचि-रंगों के चुनाव
किसके कपड़ों में टाँकोगे
अखरेगा किसकी बातों में
पूरी दिनचर्या ठप होना
दरकेगी सरोवरी छाती
धूलिया जेठ-बैसाखों में

ये गुँथे-गुँथे बतियाते पल
कल तक गूँगे हो जाएँगे
होठों से उड़ते भ्रमर-गीत
सूरज ढलते सो जाएँगे
जितना उड़ती है आयु-परी
इकलापन बढ़ता जाता है
सारा जीवन निर्धन करके
ये पारस पल खो जाएँगे
गोरा मुख लिये खड़े रहना
खिड़की की स्याह सलाखों में

-भारत भूषण

08 April 2018

मेरी कुछ आदत ख़राब है

कोई दूरी, मुझसे नहीं सही जाती है
मुँह देखे की मुझसे नहीं कही जाती है
मैं कैसे उनसे, प्रणाम के रिश्ते जोडूँ
जिनकी नाव पराए घाट बही जाती है
मैं तो ख़ूब खुलासा रहने का आदी हूँ
उनकी बात अलग, जिनके मुँह पर नकाब है

है मुझको मालूम, हवाएँ ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवाएँ ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण, ग़लत होते जाते हैं
शायद युग की नयी ऋचाएँ ठीक नहीं हैं
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वह क़िताब भी क्या कोई अच्छी क़िताब है

वैसे, जो सबके उसूल, मेरे उसूल हैं
लेकिन ऐसे नहीं कि जो बिल्कुल फिजूल हैं
तय है ऐसी हालत में, कुछ घाटे होंगे
लेकिन ऐसे सब घाटे मुझको क़बूल हैं
मैं ऐसे लोगों का साथ न दे पाऊँगा
जिनके खाते अलग, अलग जिनका हिसाब है

-मुकुट बिहारी सरोज

02 April 2018

आप ग़ज़ल कहते हैं

आप ग़ज़ल कहते हैं इसको, पर ये आग हमारी है
इसको हर पल ज़िन्दा रखने की अपनी लाचारी है.

आईना हूँ, अंधापन हरगिज़ मुझको मंज़ूर नहीं
जैसे को तैसा कहने की अपनी ज़िम्मेदारी है.

खुद्दारी थी अपने आगे करते भी तो क्या करते
गुमनामी से लड़कर आखिर हमने उम्र गुज़ारी है .

पहले दुनिया को बाँचेंगे फिर लिखने की सोचेंगे
हम उनसे हैं दूर जिन्हें बस लिखने की बीमारी है .

पत्थर हैं हम तुम दोनों ही , हम पथ में तुम मंदिर में
क्या तक़दीर तुम्हारी भाई क्या तक़दीर हमारी है !

महफ़िल में तुम ही हरदम बैठे हो आगे की सफ़ में
काश! कभी हमसे भी कहते- 'आज तुम्हारी बारी है'.

गिन गिन कर रक्खे हैं इसमें उसके दिन उसकी रातें
मत खोलो इसको ये उसकी यादों की अलमारी है .

-जय चक्रवर्ती

25 December 2017

ओ वासंती पवन हमारे घर आना

ओ वासंती पवन हमारे घर आना

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना

जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना

एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना

पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना

-कुँअर बेचैन

22 December 2017

भैया जी

["भैया जी" हर जगह मिल जाते हैं, गाँव में, कस्वों में, नगरों में, महानगरों में...... नित्यगोपाल कटारे जी के इस गीत में भैया जी की जो छवि उभरती है, वह आपके भी कहीं आस-पास की भी हो सकती है.....[ 


                         -शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

तीरथ चारों धाम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

भैया जी का रौब यहाँ पर चलता है
हर अधिकारी भैया जी से पलता है
चाँद निकलता है इनकी परमीशन से
इनकी ही मरजी से सूरज ढ़लता है
दिखते बुद्धूराम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

पाँचों उँगली घी में और मुँह शक्कर में
कोई न टिकता भैया जी की टक्कर में
लिये मोबाइल बैठ कार में फिरते हैं
सुरा सुन्दरी काले धन के चक्कर में
व्यस्त सुबह से शाम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

भैया जी के पास व्यक्तिगत सेना है
दुष्ट जनों को रोजगार भी देना है
चन्दा चौथ वसूली खिला जुआँ सट्टा
प्रजातन्त्र किसको क्या लेना देना है
करते ना आराम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

फ़रजी वोट जिधर चाहें डलवा देते
पड़ी ज़रूरत तुरत लट्ठ चलवा देते
भैया जी चाहें तो अच्छे अच्छों की
पूरी इज़्ज़त मिट्टी में मिलवा देते
कर देते बदनाम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

बीच काम में जो भी अटकाता रोड़ा
अपने हिस्से में से दे देते थोड़ा
साम दाम से फिर भी नहीं मानता जो
भैया जी ने उसको कभी नहीं छोड़ा
करते काम तमाम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

चोरी डाका बलात्कार या हत्या कर
पहुँच जाइये भैया जी की चौखट पर
नहीं कर सकेगा फिर कोई बाल बाँका
भैया जी थाने से ले आयेंगे घर
लेते पूरे दाम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

हिन्दू हो मुस्लिम हो या फिर ईसाई
सदा धर्म निरपेक्ष रहें अपने भाई
धन्धे में कुछ भी ना भेद भाव करते
कोई विदेशी हो या कोई सगा भाई
नहीं है नमकहराम हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

जो भैया जी स्तोत्र सुबह सायं गाते
सड़क भवन पुलियों का ठेका पा जाते
भक्ति भाव से भैया जी रटते-रटते
अन्तकाल में खुद भैया जी बन जाते
इतने शक्तिमान हमारे भैया जी
कर देते सब काम हमारे भैया जी ।।

-शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

15 November 2017

कविता की जरूरत

बहुत कुछ
दे सकती है कविता
क्यों कि
बहुत कुछ
हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में

अगर हम
जगह दें उसे
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात

हम बचाये रख सकते हैं
उसके लिए
अपने अन्दर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ ज़मीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो

वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम

-कुँवर नारायण

25 September 2017

धधक कर किसी की चिता जल रही है

अन्धेरी निशा में नदी के किनारे
धधक कर किसी की चिता जल रही है

धरा रो रही है, बिलखती दिशाएँ
असह वेदना ले गगन रो रहा है
किसी की अधूरी कहानी सिसकती
कि उजड़ा किसी का चमन रो रहा है
घनेरी नशा में न जलते सितारे
बिलखकर किसी की चिता जल रही है

चिता पर किसी की उजड़ती निशानी
चिता पर किसी की धधकती जवानी
किसी की सुलगती छटा जा रही है
चिता पर किसी की सुलगती रवानी
क्षणिक मोह-ममता जगत को बिसारे
लहक कर किसी की चिता जल रही है

चिता पर किसी का मधुर प्यार जलता
किसी का विकल प्राण, श्रृंगार जलता
सुहागिन की सुषमा जली जा रही है
अभागिन बनी जो कि संसार जलता
नदी पार तृण पर अनल के सहारे
सिसक कर किसी की चिता जल रही है

अकेला चला था जगत के सफर में
चला जा रहा है, जगत से अकेला
क्षणिक दो घड़ी के लिए जग तमाशा
क्षणिक मोह-ममता, जगत का झमेला
लुटी जा रही हैं किसी की बहारें
दहक कर किसी की चिता जल रही है

-सरयू सिंह सुन्दर

24 September 2017

ग़मों को सहते ही रहने की

ग़मों को सहते ही रहने की आदत छोड़ आया हूँ
जहाँ पर पाँव जलते थे, मैं वो छत छोड़ आया हूँ

ये चीज़ें भूल जाने की मेरी आदत का क्या कीजे
मैं तेरे दिल में अपने दिल की दौलत छोड़ आया हूँ

'बया' चिड़िया हूँ, औरों के ही मुझको घर बनाने हैं
मैं हर तिनके पे लिख-लिख कर 'मुहब्बत' छोड़ आया हूँ

तू खुद को आईने में देखकर, जब चाहे पढ़ लेना
तेरी आँखों में, जो भी प्यार के ख़त छोड़ आया हूँ

किसी को क्या पता, कितने दिलों के काग़ज़ों से मैं
फ़साना बनके लौटा हूँ, हक़ीक़त छोड़ आया हूँ

रहेगा बचपना जब तक, रहेगी ज़िन्दगी उनमें
बड़ों में नन्हे बच्चों-सी शरारत छोड़ आया हूँ

मुझे अब उम्र भर तदबीर से ही काम लेना है
न जाने कौन से हाथों में क़िस्मत छोड़ आया हूँ

पता भी है तुझ्रे दुनिया, कि तेरे इश्क़ की ख़ातिर
ख़ुदा ने मुझको बख़्शी थी, वो ज़न्नत छोड़ आया हूँ

'कुँअर' कुछ लोग रुसवा भी करेंगे, इतना तो तय है
मैं इस दुनिया की गलियों में जो शोहरत छोड़ आया हूँ

-कुँअर बेचैन

17 September 2017

साली

 -गोपालप्रसाद व्यास

तुम श्लील कहो, अश्लील कहो
चाहो तो खुलकर गाली दो
तुम भले मुझे कवि मत मानो
मत वाह-वाह की ताली दो
पर मैं तो अपने मालिक से
हर बार यही वर माँगूँगा-
तुम गोरी दो या काली दो
भगवान मुझे इक साली दो

सीधी दो, नखरों वाली दो
साधारण या कि निराली दो
चाहे बबूल की टहनी दो
चाहे चंपे की डाली दो
पर मुझे जन्म देने वाले
यह माँग नहीं ठुकरा देना
असली दो, चाहे जाली दो
भगवान मुझे एक साली दो

वह यौवन भी क्या यौवन है
जिसमें मुख पर लाली न हुई
अलकें घूँघरवाली न हुईं
आँखें रस की प्याली न हुईं
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें मनुष्य जीजा न बना
वह जीजा भी क्या जीजा है
जिसके छोटी साली न हुई

तुम खा लो भले प्लेटों में
लेकिन थाली की और बात
तुम रहो फेंकते भरे दाँव
लेकिन खाली की और बात
तुम मटके पर मटके पी लो
लेकिन प्याली का और मजा
पत्नी को हरदम रखो साथ
लेकिन साली की और बात

पत्नी केवल अर्द्धांगिन है
साली सर्वांगिण होती है
पत्नी तो रोती ही रहती
साली बिखेरती मोती है
साला भी गहरे में जाकर
अक्सर पतवार फेंक देता
साली जीजा जी की नैया
खेती है, नहीं डुबोती है

विरहिन पत्नी को साली ही
पी का संदेश सुनाती है
भोंदू पत्नी को साली ही
करना शिकार सिखलाती है
दम्पति में अगर तनाव
रूस-अमरीका जैसा हो जाए
तो साली ही नेहरू बनकर
भटकों को राह दिखाती है

साली है पायल की छम-छम
साली है चम-चम तारा-सी
साली है बुलबुल-सी चुलबुल
साली है चंचल पारा-सी
यदि इन उपमाओं से भी कुछ
पहचान नहीं हो पाए तो
हर रोग दूर करने वाली
साली है अमृतधारा-सी

मुल्ला को जैसे दुःख देती
बुर्के की चौड़ी जाली है
पीने वालों को ज्यों अखरी
टेबिल की बोतल खाली है
चाऊ को जैसे च्याँग नहीं
सपने में कभी सुहाता है
ऐसे में खूँसट लोगों को
यह कविता साली वाली है

साली तो रस की प्याली है
साली क्या है रसगुल्ला है
साली तो मधुर मलाई-सी
अथवा रबड़ी का कुल्ला है
पत्नी तो सख्त छुहारा है
हरदम सिकुड़ी ही रहती है
साली है फाँक संतरे की
जो कुछ है खुल्लमखुल्ला है

साली चटनी पोदीने की
बातों की चाट जगाती है
साली है दिल्ली का लड्डू
देखो तो भूख बढ़ाती है
साली है मथुरा की खुरचन
रस में लिपटी ही आती है
साली है आलू का पापड़
छूते ही शोर मचाती है

कुछ पता तुम्हें है, हिटलर को
किसलिए अग्नि ने छार किया
या क्यों ब्रिटेन के लोगों ने
अपना प्रिय किंग उतार दिया
ये दोनों थे साली-विहीन
इसलिए लड़ाई हार गए
वह मुल्क-ए-अदम सिधार गए
यह सात समुंदर पार गए

किसलिए विनोबा गाँव-गाँव
यूँ मारे-मारे फिरते थे
दो-दो बज जाते थे लेकिन
नेहरू के पलक न गिरते थे
ये दोनों थे साली-विहीन
वह बाबा बाल बढ़ा निकला
चाचा भी कलम घिसा करता
अपने घर में बैठा इकला

मुझको ही देखो साली बिन
जीवन ठाली-सा लगता है
सालों का जीजा जी कहना
मुझको गाली-सा लगता है
यदि प्रभु के परम पराक्रम से
कोई साली पा जाता मैं
तो भला हास्य-रस में लिखकर
पत्नी को गीत बनाता मैं ।

-गोपाल प्रसाद व्यास

05 September 2017

आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ


(हिन्दी माह में पूर्व वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय की एक कविता सभी हिन्दी प्रेमियों के लिए)

स्वरों व्यंजनों से परिनिष्ठत, है वर्णों की माला,
शब्द-शब्द अत्यन्त परिष्कृत, देते अर्थ निराला
उच्चकोटि के भाव निहित हैं, नित प्रेरणा जगाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

व्यक्त विचारों को करने का, यह सशक्त माध्यम है,
देवनागरी लिपि अति सुन्दर सर्वश्रेष्ठ उत्तम है
इसकी हैं बोलियाँ बहुत सी इसे समृद्ध बनाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

उच्चारण, वर्तनी सभी में, इसको सिद्धि मिली है,
है व्याकरण परम वैज्ञनिक, पूर्ण प्रसिद्धि मिली है
इसके अदर सम्प्रेषण का अनुपमय गुण पाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

हिन्दी सरल, सुबोँ, सरस है नहीं कहीं कठिनाई,
जो भी इसे सीखना चाहें, लक्ष्य मिले सुखदाई
काम करें हम सब हिन्दी में इसकी ख्याति बढ़ाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ


कवियों ने की प्राप्त प्रतिष्ठा, रच कविता कल्याणी
गूँज रही है अब भी उनकी, पावन प्रेरक वाणी
हम इसकी साहित्य-सम्पदा, भूल न किंचित जाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

ओजस्वी कविताएँ लिखकर अमर चन्द बरदाई,
अमिट भक्ति की धारा तुलसी ने सर्वत्र बहाई
सूर, कबीर, जायसी की भी कृतियाँ हृदय लुभाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

केशव, देव, बिहारी, भूषण के हम सब आभारी,
रत्नाकर, भारतेन्दु उच्च पद के सदैव अधिकारी
महावीर, मैथिलीशरण, हरिऔध सुकीर्ति कमाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

पन्त, प्रसाद, महादेवी का योगदान अनुपम है,
देन ‘निराला’ की हिन्दी को परम श्रेष्ठ उत्तम है
दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी राष्ट्र-भक्ति उपजाएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

करें प्रयोग नित्य हिन्दी का, रक्खें अविचल निष्ठा,
ऐसा करें प्रयास कि जिससे, जग में मिले प्रतिष्ठा
हिन्दी का ध्वज अखिल विश्व में मिलजुल कर फहराएँ
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ
--
         -विनोद चन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’
आई.ए.एस.(अ.प्रा.)
पूर्व निदेशक
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ

12 August 2017

डा० स्टेला कुजूर के हाइकु

उडूँ कैसे मैं
पंख तोड़ दिये हैं
ताक में बाज़

***

कहाँ रुके हैं
सितमगर वाण
कला के शत्रु

***

ढेकी कूटती
वह आदिवासिनि
जीवन्त कला

***

वनों में छूटे
पढ़ाई की भूख में
सब अपने

***

झलक रहा
दीये की रोशनी में
माँ का वदन

***

अँधेरी रात
फटी चटाई पर
ज़ख्मी सपने

***

नदी के पार
गूँजता अनहद
जलपाखी-सा

***

लौट आने को
करता मनुहार
अपना गाँव

***

बर्फ जमीं थी
सदियों के रिश्तों में
पिघल बही

***

अकेला राही
घुमावदार रास्ता
वर्षा का पानी

***

विजन वन
गरजता बादल
घना जंगल

***

अँगीठी पर
माँ खुद को पकाती
ख्वाब बुनती

***

रेंगने लगी
बेटे की पीठ पर
आहत हवा

***

एक ही छत
सब हैं साथ-साथ
अनजाने से

-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर

दृग देख जहाँ तक पाते हैं

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है
फिर भी उस पार खड़ा कोई, हम सबको टेर बुलाता है
मैं आज चला, कल आओगे तुम, परसों सब संगी-साथी
दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको जाना है जाता है ।

                                           -हरिवंश राय बच्चन